यहां पर भी हूँ मैं, मैं ही वहां हूँ
ठिकाना है बदन, मैं लामकां हूँ
हमारा साथ है कुछ इस तरह से
तड़प और दर्द तू है, मैं फुगां हूँ
हुई है ग़म से निस्बत जब से मेरी
है सच, न ग़मज़दा हूँ न शादमां हूँ
मुझे पढ़ लो मुझे महसूस कर लो
मैं अपनी नज़्मों-ग़ज़लों में निहां हूँ
न है उन्वान, न ही हाशिया है
मुझे सुन लो सरापा दास्तां हूँ
नदीश आओ ज़माना मुझमें देखो
मैं नस्ल-ए-नौ की मंज़िल का निशां हूँ
चित्र साभार- गूगल
वाह शानदार!!!
ReplyDeleteनस्ल ए नौ की मंजिल का निशां हूं।
बेहतरीन उम्दा।
आभार आदरणीया
Deleteसुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteआभार आदरणीया
Deleteगज़ल तो हमेशा की तरह लाज़वाब है लोकेश जी....पर कुछ शब्दों के अर्थ समझ नहीं पाये हम।😢
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteशब्दों के अर्थ बता दूंगा
बहुत खूब ...
ReplyDeleteगज़ब की ग़ज़ल ... बहुत से नए शदों के साथ कमल के शेर ...
बेहद शुक्रिया
Deleteवाह बहुत खुब
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया
Deleteशानदार.......
ReplyDeleteनस्ल-ए-नौ.....? का अर्थ बताएं आदरणीय
नई पीढ़ी, वंशज।
Deleteबेहद शुक्रिया