यूँ मुसलसल ज़िन्दगी से मसख़री करते रहे
ज़िन्दगी भर आरज़ू-ए-ज़िन्दगी करते रहे
एक मुद्दत से हक़ीक़त में नहीं आये यहाँ
ख़्वाब की गलियों में जो आवारगी करते रहे
बड़बड़ाना अक्स अपना आईने में देखकर
इस तरह ज़ाहिर वो अपनी बेबसी करते रहे
रोकने कि कोशिशें तो खूब कि पलकों ने पर
इश्क़ में पागल थे आंसू ख़ुदकुशी करते रहे
आ गया एहसास के फिर चीथड़े ओढ़े हुए
दर्द का लम्हा जिसे हम मुल्तवी करते रहे
दिल्लगी दिल कि लगी में फर्क कितना है नदीश
दिल लगाया हमने जिनसे दिल्लगी करते रहे
चित्र साभार-गूगल
मुसलसल- लगातार, निरंतर
मुल्तवी- टालना
दिल्लगी दिल कि लगी में फर्क कितना है नदीश
जवाब देंहटाएंदिल लगाया हमने जिनसे दिल्लगी करते रहे
Wah..wah...bhai Lokesh ji...
आभार आदरणीय
हटाएंवाह्ह्ह्ह....गज़ब...
जवाब देंहटाएंक्या शानदार गज़ल लिखी आपने लोकेश जी...पसंद आयी बहुत...👌👌👌👌
आभार श्वेता जी
हटाएंगज़ब के शेर ...
जवाब देंहटाएंहर शेर नायाब सितारे की तरह ग़ज़ल को लाजवाब बना रहा है ...
आभार आदरणीय
हटाएंWahhhhh। बहुत लाज़वाब लोकेश जी। ग़ज़लकारी में कोई उत्तर नहीं। एकदम बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
हटाएंरोकने कि कोशिशें तो खूब कि पलकों ने पर
जवाब देंहटाएंइश्क़ में पागल थे आंसू ख़ुदकुशी करते रहे ...
अति उत्तम... बेहतरीन गज़ल आदरणीय
आभार आदरणीय
हटाएंआ गया एहसास के फिर चीथड़े ओढ़े हुए
जवाब देंहटाएंदर्द का लम्हा जिसे हम मुल्तवी करते रहे ... सुंदर रचना
बहुत बहुत आभार
हटाएंबहुत सुन्दर रचना,
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
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