सिर्फ इतना ही यहां तंग नज़र जानते हैं
दर-ओ-दीवार बनाकर उसे घर जानते हैं
कोई परवाह है तूफां की न ही डर छालों का
हम फ़क़त अपना जो मक़सदे-सफ़र जानते हैं
ओस की बूंदों से जिनके बदन झुलसते हैं
उनका दावा कि वो तासीर-ए-शरर जानते हैं
वहीं से ज़ख्म मुहब्बत के मिले हैं हमको
लोग जिस जगह को उल्फ़त का नगर जानते हैं
आब की तह में किनारे मिला करते हैं नदीश
देखने वाले जुदा उनको मगर जानते हैं
चित्र साभार- गूगल
आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/12/48.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय
हटाएंबहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीया
हटाएंबहुत लाजवाब......
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीया
हटाएंवाह ! क्या बात है ! एक से बढ़कर एक शेर ! लाजवाब !! बहुत खूब आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
हटाएंउल्फ़त के नगर से ज़ख़्म ... क्या बात है
जवाब देंहटाएंलाजवाब ग़ज़ल ...
आभार आदरणीय
हटाएंओस की बूंदों से जिनके बदन झुलसते हैं
जवाब देंहटाएंउनका दावा कि वो तासीर-ए-शरर जानते हैं--- वाह !!लाजवाब पंक्तियों से सजी गजल | बधाई आदरणीय लोकेश जी |
आभार आदरणीया
हटाएंवाह वाह उम्दा हमेशा की तरह।
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीया
हटाएंशानदार !
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
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