गैर से ही नहीं खुद से भी छले मिलते हैं
लोग चेहरे पे कई चेहरे मले मिलते हैं
मैंने एहसास के दरीचे से देखा जब भी
फूल के पेड़ भी कांटों से फले मिलते हैं
पांव से कह रहा है देख, रास्ता तेरा
राह में प्यार की, तलवे तो जले मिलते हैं
अब ठहरती ही नहीं सीख मुहब्बत की कहीं
लोग दिल से बुरे, लफ़्ज़ों से भले मिलते हैं
बात वो ही किया करते हैं दूरियों की नदीश
चित्र साभार- गूगल
वाह्ह्ह....आपकी ग़ज़ल की बानगी के क्या कहने लोकेश जी।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत लिखते है आप...लाज़वाब गज़ल👌👌
आभार श्वेता जी
हटाएंलाजवाब गज़ल......,
जवाब देंहटाएंआभूषण आदरणीया
हटाएंगैर से ही नहीं खुद से भी छले मिलते हैं
जवाब देंहटाएंलोग चेहरे पे कई चेहरे मले मिलते हैं
...
बेहतरीन गजल नदीश जी। बधाई
आभार आदरणीय
हटाएंजी बेहतरीन!!!
जवाब देंहटाएंसत्य दर्शन करवाती गजल
शब्द सौष्ठव बेहद उम्दा।
शुभ दिवस।
आभार आदरणीया
हटाएंबेहद खूबसूरत
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीया
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जवाब देंहटाएंगैर से ही नहीं खुद से भी छले मिलते हैं
लोग चेहरे पे कई चेहरे मले मिलते हैं... वाह बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल लोकेश जी
अब ठहरती ही नहीं सीख मुहब्बत की कहीं
जवाब देंहटाएंलोग दिल से बुरे, लफ़्ज़ों से भले मिलते हैं
बहुत ही मार्मिक शेरों से सजी रचना आदरणीय लोकेश जी | आजके जमाने के कडवे सच हैं | सादर