ये तेरी जुस्तजू से मुझे तज़ुर्बा हुआ
मंज़िल हुई मेरी न मेरा रास्ता हुआ
खुशियों को कहीं भी न कभी रास आऊँ मैं
हाँ सल्तनत में दर्द की ये फैसला हुआ
मिट ना सकेगा ये किसी सूरत भी अब कभी
नज़दीकियों के दरम्यान जो फासला हुआ
जब से खँगालने चले तहखाने नींद के
अश्क़ों की बगावत में ख़्वाब था डरा हुआ
अक्सर ये सोचता हूँ क्या है मेरा वज़ूद
मैं एक अजनबी से बदन में पड़ा हुआ
थी ज़िंदगी की कश्मकश कि होश गुम गए
कहते हैं लोग उसको कि वो सिरफिरा हुआ
है मेरा अपना हौसला परवाज़ भी मेरी
मैं एक परिन्दा हूँ मगर पर कटा हुआ
मजबूरियों ने मेरी न छोड़ा मुझे कहीं
मत पूछना ये तुझसे मैं कैसे जुदा हुआ
अब थम गया नदीश तेरी ख़िल्वतों का शोर
19 Comments
जी उम्दा रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteजुड़िये Ad Click Team से और बढ़ाइए अपने ब्लॉग की इनकम और विजिटर संख्या .........
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ९फरवरी २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुंदर रचना। लाज़वाब
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबेहद सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 13 दिसम्बर 2018 को प्रकाशनार्थ 1245 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
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सधन्यवाद।
वाह ... गज़ब ...
ReplyDeleteहर शेर कमाल का है ... खूबसूरत ग़ज़ल ...
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल
ReplyDeleteलाजबाब !! वाह , वाह....
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteकमाल की गजल...
बहुत लाजवाब
लाजवाब...., बेहतरीन सृजन ।
ReplyDeleteहै मेरा अपना हौसला परवाज़ भी मेरी
ReplyDeleteमैं एक परिन्दा हूँ मगर पर कटा हुआ
वाह वाह बहुत ख़ूब