मुहब्बत में अपनी असर चाहता हूँ
वफ़ा से भरी हो नज़र चाहता हूँ
तेरा दिल है मंज़िल मेरी चाहतों की
नज़र की तेरी रहगुज़र चाहता हूँ
रहो मेरी आँखों के रु-ब-रु तुम
बस ऐसी ही शामो-सहर चाहता हूँ
कभी बांटकर, मेरी तनहाइयों को
अगर जान लो, किस कदर चाहता हूँ
वफ़ा दौर-ए-हाज़िर में किसको मिली है
मेरे दोस्त तुझसे मगर चाहता हूँ
बनाकर तेरे ख़्वाबों में आशियाँ मैं
करूँ ज़िन्दगी को बसर चाहता हूँ
सफ़र में तुझी को नदीश ज़िन्दगी के
मैं अपने लिए हमसफ़र चाहता हूँ
ज़िंदगी में सफ़र में वो हमसफ़र हो जाएँ तो मज़ा ही आ जाए ..
जवाब देंहटाएंबहुत महावन शेर ग़ज़ल के ...
बहुत बहुत आभार
हटाएंकभी बांटकर, मेरी तनहाइयों को
जवाब देंहटाएंअगर जान लो, किस कदर चाहता हूँ
..... वाह!! सुभान अल्लाह!!!
बहुत बहुत आभार
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंवफ़ा दौर-ए-हाज़िर में किसको मिली है
जवाब देंहटाएंमेरे दोस्त तुझसे मगर चाहता हू!
क्या खूब लिखा है आपने। वक्त के इस दौर की कड़वी सच्चाई लिख डाली है इक शेर में।
बहुत बहुत आभार
हटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/03/60.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय
हटाएंन अगर चाहिए न मगर चाहिए
जवाब देंहटाएंमोहब्बत की दुनियाँ में बसर चाहिए
बहुत खूब
हटाएंबहुत ही बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबेहतरीन भावों से सजी खूबसूरत ग़ज़ल ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन गजल हर शेर लाजवाब ।
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