कितना ग़मगीन ये आलम दिखाई देता है
हर जगह दर्द का मौसम दिखाई देता है
दिल को आदत सी हो गई है ख़लिश की जैसे
अब तो हर खार भी मरहम दिखाई देता है
तमाम रात रो रहा था चाँद भी तन्हा
ज़मीं का पैरहन ये नम दिखाई देता है
न आ सका तुझे अश्क़ों को छिपाना अब तक
हँसी के साथ-साथ ग़म दिखाई देता है
जहाँ पे दर्द ने जोड़े नहीं कभी रिश्ते
वहाँ का जश्न भी मातम दिखाई देता है
ग़मों की दास्तां किसको सुनाता मैं नदीश
न हमनवां है, न हमदम दिखाई देता है
चित्र साभार- गूगल
सुंदर !!! बेहतरीन अशआर !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंBahut khub
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंachha laga
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/03/61.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय
हटाएंबहुत ख़ूब ..। लाजवाब शेर ग़ज़ल के ..
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
हटाएंवाह !!!बहुत ही शानदार रचना।
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीया
हटाएंबहुत सुंदर अप्रतिम ।
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीया
हटाएंबहुत शानदार
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल
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