रखता नहीं है निस्बतें किसी से आदमी
रिश्तों को ढ़ो रहा है आजिज़ी से आदमी
धोखा, फ़रेब, खून-ए-वफ़ा रस्म हो गए
डरने लगा है अब तो दोस्ती से आदमी
मिलती नहीं हवा भी चराग़ों से इस तरह
मिलता है जिस तरह से आदमी से आदमी
शिकवा ग़मों का यूँ तो हर एक पल से है यहाँ
ख़ुश भी नहीं हुआ मगर ख़ुशी से आदमी
हासिल है रंजिशों का तबाही-ओ-तबाही
रहता है मगर फिर भी दुश्मनी से आदमी
अपना पराया भूल के सब एक हो यहां
अच्छा है कि मिल के रहे सभी से आदमी
अच्छा है कि नदीश मुकम्मल नहीं है तू
पाता है कुछ नया किसी कमी सी आदमी
चित्र साभार- गूगल
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निस्बत- अपनापन
आजिज़ी- बेमन, बेरुख़ी
मुकम्मल- पूर्ण
14 Comments
वाह्ह्ह...बेहद शानदार गज़ल लोकेश जी।
ReplyDeleteहर शेर बेहद.उम्दा है👌👌
आदमी की फितरत है ऐसे कैसे बदलेगी
दिखाओ न आईना असलियत देखकर बिगड़ेगी
बेहद शुक्रिया
Deleteबहुत ही सुंदर शायरी। मैं तो चाहकर भी ऐसा नही लिख पाऊंगा। बधाई
ReplyDeleteआप भी बेहतर लिखते हैं आदरणीय
Deleteबहुत धन्यवाद
बेहतरीन ग़ज़ल.....,
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया
Deleteधोखा, फ़रेब, खून-ए-वफ़ा रस्म हो गए
ReplyDeleteडरने लगा है अब तो दोस्ती से आदमी--------बहुत खूब रचना आदरणीय लोकेश जी | सुप्रभात व शुभकामनायें |
बेहद शुक्रिया
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
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सधन्यवाद।
बेहद आभार आदरणीय
Deleteबहुत ही शानदार।
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया
Deleteबहुत ख़ूब ...
ReplyDeleteडरने लगा है दोस्ती से आदमी ...
हर शेर लाजवाब है और पूरी ग़ज़ल तो कमाल की ...
बेहद आभार आदरणीय
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