सैकड़ों खानों में जैसे बंट गई है ज़िन्दगी
साथ रह कर भी लगे है अजनबी है ज़िन्दगी
झाँकता हूँ आईने में जब भी मैं अहसास के
यूँ लगे है मुझको जैसे कि नयी है ज़िन्दगी
न तो मिलने की ख़ुशी है न बिछड़ जाने का ग़म
हाय, ये किस मोड़ पे आकर रुकी है ज़िन्दगी
सीख ले अब लम्हें-लम्हें को ही जीने का हुनर
कौन जाने और अब कितनी बची है ज़िन्दगी
आख़िरी है वक़्त कि अब तो चले आओ सनम
बस तुम्हें ही देखने तरसी हुई है ज़िन्दगी
वस्ल भी है प्यार भी है प्यास भी है जाम भी
फिर भी जाने क्यों लगे है अनमनी है ज़िन्दगी
अब कहाँ तन्हाई ओ' तन्हाई का साया नदीश
उसके ख़्वाबों और ख़्यालों से सजी है ज़िन्दगी
चित्र साभार- गूगल
जहाँ सब अपने हों ... ख़ुशी ग़म न हो वही तो असल ज़िंदगी है .... बहुत ही कमाल के शेर इस ग़ज़ल के ... ज़िंदाबाद ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.com/2018/06/75.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंहर बार की तरह लाजवाब हर शेर उम्दा ।
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंअब कहाँ तन्हाई ओ' तन्हाई का साया नदीश
जवाब देंहटाएंउसके ख़्वाबों और ख़्यालों से सजी है ज़िन्दगी.... वाह बहुत सुंदर
बहुत बहुत आभार आपका
हटाएंअति उत्तम भाव विभोर कर देने वाली रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका
हटाएंसीख ले अब लम्हें-लम्हें को ही जीने का हुनर
जवाब देंहटाएंकौन जाने और अब कितनी बची है ज़िन्दगी......क्या बात है...बहुत खूब
हार्दिक आभार आपका
हटाएंBahut hi sundar
जवाब देंहटाएंVah kya khub likha hian aapne
हार्दिक आभार आपका
हटाएंसैकड़ों खानों में जैसे बंट गई है ज़िन्दगी
जवाब देंहटाएंसाथ रह कर भी लगे है अजनबी है ज़िन्दगी
बहुत खूब......., लाजवाब सृजन ।
हार्दिक आभार आपका
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