दूर मुझसे न रहो तुम यूँ बेखबर बन कर
क़रीब आओ चलो साथ हमसफ़र बन कर
जहाँ भी देखता हूँ, बस तुम्हारा चेहरा है
बसी हो आँख में तुम ही मेरी नज़र बन कर
सफ़र में तेज हुई धूप ग़मों की जब भी
तुम्हारी याद ने साया किया शजर* बन कर
महक रही है हरेक सांस में ख़ुश्बू तेरी
मेरे वज़ूद में तू है दिलो-जिगर बन कर
शब-ए-हयात* में उल्फ़त* की रोशनी लेकर
चले भी आओ ज़िन्दगी में तुम सहर बन कर
तुम्हारे नाम पर कर दे, ये ज़िन्दगी भी नदीश
रहो ता-उम्र मेरे यूँ ही तुम अगर बन कर
चित्र साभार- गूगल
शजर- पेड़
शब-ए-हयात- जीवन की रात
उल्फ़त- प्रेम
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 08 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरी रचना के चयन के लिए बहुत बहुत आभार आपका
हटाएंबहुत खूब ......,सादर नमन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका
हटाएंबेहतरीन व लाजवाब सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका
हटाएंलाजवाब सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका
हटाएंबेहतरीन सृजन, प्रेमपगी गजल।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन
बहुत बहुत आभार आपका
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (09-12-2019) को "नारी-सम्मान पर डाका ?"(चर्चा अंक-3544) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं…
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रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत बहुत आभार आपका
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
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