ख़्वाब-ए-वफ़ा के ज़िस्म की खराश देखकर
इन आंसुओं की बिखरी हुई लाश देखकर
जब से चला हूँ मैं, कहीं ठहरा न एक पल
राहें भी रो पड़ी मेरी तलाश देखकर
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सांसों की फिसलती हुई ये डोर थामकर
बेताब दिल की धड़कनों का शोर थामकर
करता हूँ इन्तज़ार इसी आस में कि तुम
आओगी कभी तीरगी* में भोर थामकर
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ख़िल्वत* की पोशीदा* पीर भेजी है
तुमको ख़्वाबों की ताबीर* भेजी है
रंग मुहब्बत का थोड़ा सा भर देना
याद की बेरंग एक तस्वीर भेजी है
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तीरगी- अंधेरा
ख़िल्वत- एकांत
पोशीदा- छिपी हुई, गुप्त
ताबीर- साकार
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चित्र साभार- गूगल
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 02 जनवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
1630...कुछ ऊबड़-खाबड़ लिखा जाता है सामाजिक विषमताओं के घने अंधेरों पर...
हार्दिक आभार आपका
हटाएंबेहतरीन !!!...
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका
हटाएंबहुत ही खूबसूरत। वाकई बेहतरीन लिखा है आपने। कई बार पढ़ा मैंने।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंहौसला अफजाई का शुक्रिया
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (03-01-2020) को "शब्द ऊर्जा हैं " (35 69 ) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर
आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
"मीना भारद्वाज"
मेरी रचना के चयन के लिए हार्दिक आभार
हटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका
हटाएंबहुत हृदय स्पर्शी।
जवाब देंहटाएंउम्दा लेखन।
हार्दिक आभार आपका
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