मैं ज़ख़्म देखता हूँ न अज़ाब देखता हूँ
शिद्दत से मुहब्बत का इज़्तिराब देखता हूँ
लगती है ख़लिश दिल की उस वक्त मखमली सी
काँटों पे जब भी हँसता गुलाब देखता हूँ
दागों के अंधेरों में लगता है ज़र्द मुझको
जब साथ-साथ तेरे माहताब देखता हूँ
हर जोड़ घटाने में अपनों के अंक ही हैं
ज़ख़्मों का जब भी अपने हिसाब देखता हूँ
लगता है सच में मुझको शादाब दिल का सहरा
जब आईने में तेरा शबाब देखता हूँ
पलकों की रोशनी में हो जाती है इज़ाफ़त
आँखों में तेरी अपने जब ख़्वाब देखता हूँ
बस ऐ नदीश ये ही सांसों का फ़लसफ़ा है
पानी में जब भी उठता हुबाब देखता हूँ
चित्र साभार- गूगल
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 16 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरी रचना के चयन के लिए हार्दिक आभार
हटाएंदागों के अंधेरों में लगता है ज़र्द मुझको
जवाब देंहटाएंजब साथ-साथ तेरे माहताब देखता हूँ
बहुत उम्दा सृजन।
हार्दिक आभार आपका
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-01-2020) को " सूर्य भी शीत उगलता है"(चर्चा अंक - 3583) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता 'अनु '
मेरी रचना के चयन के लिए हार्दिक आभार
हटाएंभाई नदीश जी, मेरी उर्दु कमजोर है पर आपकी रचनाओं की लय में मजा आ जाता है।
जवाब देंहटाएंपलकों की रोशनी में हो जाती है इज़ाफ़त
आँखों में तेरी अपने जब ख़्वाब देखता हूँ।
बहुत खूब....
शुभकामनाएं स्वीकार करें
हार्दिक आभार आपका
हटाएंपलकों की रोशनी में हो जाती है इज़ाफ़त
जवाब देंहटाएंआँखों में तेरी अपने जब ख़्वाब देखता हूँ
बेहद खूबसूरत रचना आदरणीय
हार्दिक आभार आपका
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और प्रभावी गजल
हार्दिक आभार आपका
हटाएंबहुत सुन्दर ग़ज़ल, बधाई.
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया आपका
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